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१२ जनवरी, १९६५
... सारी बात है डटे रहना और डटे रहनेके लिये मैंने बस एक ही उपाय पाया है, वह है 'शांत-स्थिरता', आंतरिक शांत-स्थिरता -- एक ऐसी शांत-स्थिरता जिसका मतलब है..... कैसे कहा जया? जैसे-जैसे संघर्ष अधिक भौतिक होता जाय, वैसे-वैसे अधिक पूर्ण होना ।
कुछ समयसे (विशेषकर पहली जनवरीसे), विरोधी शक्तियोंकी ओरसे एक प्रकारकी बमबारी हों रहीं है - एक प्रकोप है, समझे? अतः हमें ऐसे डटे रहना चाहिये (माताजी मूर्तिवत् स्थिर हो जाती हैं), बस, यही । और जब तुम्हें भौतिक रूपसे बहुत जोरका धक्का लगे तो तुम्हें अपने शरीरसे बहुत अधिक मांग न करनी चाहिये, उसे बहुत-सी शांति, बहुत-सा आराम देना चाहिये ।
मुश्किल यह है कि मैं अपने शरीरकी अवस्थामें बहुत फंसा रहता हू, मेरी बहुत-सी चेतना उसीमें चली जाती है -- उदाहरणके लिये, भौतिक मन मेरे ऊपर पूरी तरह आक्रमण करता है ।
हां, मैं भली-भांति जानती हू । लेकिन यह तो हमेशाकी कठिनाई है, हर एकाकी यह कठिनाई है । इसीलिये भूतकालमें तुमसे कहा जाता था : ''तुम निकल जाओ! इसे यहीं कीचड़में अकेला तड़पड़ाने दो - तुम निकल जाओ ।'' लेकिन हमें यह करनेका अधिकार नहीं है । यह हमारे कार्यके विपरीत है । तुम जानते हो, अपने शरीरके बारेमें पूरी स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है, यहांतक कि तुम्हें कुछ मी अनुभव न हो, जरा मी नहीं । लेकिन मुझे अब यह भी अधिकार नहीं है कि अपने-आपको बाहर निकाल सूक, जरा सोचो तो । जब मैं काफी अस्वस्थ होती हू या जब चीजों काफी कठिन होती हैं या तब जब में जरा चुपचाप रह पाती हू, यानी, रातको, उस समय
''विचार और सूत्र'
मैं अपने-आपसे कहूं : ''काश! मैं अपने आनंदमें जा सक्''-- तो इसकी भी अनुमति नहीं है । मैं इससे बंधी हू (माताजी अपने शरीरको छूती है) यहां, इसमें उपलब्धि करनी है ।
यह इसीके लिये है ।
कभी-कमी किसी कार्य विशेषके लिये (कभी-कभी यह बिजलीकी कौधकी तरह आती है, कभी केवल कुछ मिनटोंके लिये,) वह महान् 'शक्ति' जो पहले यहां थी, जिसका हमेशा अनुभव किया जा सकता था, तेजीसे आती है, अपना काम करती है और चली जाती है । लेकिन इस शरीरपर कभी नहीं । वह इस शरीरके लिये कभी कुछ नहीं करती -- ऊपरसे आनेवाला हस्तक्षेप परिवर्तन नहीं लायगा, वह... अंदरसे आयगा ।
यही चीज तुम्हारे अंदर हो रही है और उन सबमें हो रही है जो काम कर रहे हैं, यही कठिनाई है । इसीलिये में तुमसे कहती हू : ''इसकी पर- वाह मत करो, अगर तुम अपने शरीरके साथ व्यस्त रहते हो तो चिंताकी कोई बात नहीं है : उससे लाभ उठानेकी कोशिश करो -- उस व्यस्ततासे लाभ उठानेकी कोशिश करो -- इसमें 'शांति, 'शांति' लाओं ।'' मैं तुम्हें मानों हमेशा शांतिके कोयेमें लपेटे रहती हू । और फिर, अगर तुम इस स्पन्दित होनेवाले मनमें जो हमेशा हिलता रहता है, जो सचमुच बंदरकी तरह विचलित होता रहता है, अगर तुम उसके ऊपर... इस 'शंति'को प्रतिष्ठित कर सको -- जो सीधी भौतिक स्पदनोंपर कार्य करती है -- एक ऐसी 'शांति' जिसमें हर चीज विश्राम करती है ।
यह मत सोचो -- भौतिक मनको रूपांतरित करनेके प्रयासके बारेमें. उसे चुप करने या उखाड़ फेंकनेके बारेमें मत सोचो; यह सब फिर भी क्रिया- शीलता है । बस, चुपचाप उसे चलते रहने दो, लेकिन... 'शांति' रखो, 'शंति'को अनुभव करो, 'शांति' ही जियो, 'शंति'को जानो-'शांति', 'शांति' ।
यही एकमात्र चीज है ।
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